जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
खुली चिट्टी
अमेरिका के कई एक लेखकों ने खुली चिट्ठी लिखी थी। सुज़ान सन्टाग, सलमान रुशदी, एलफ्रिड इएलिनेक, बात इयोर, बर्नार्ड हेनरी लेभी, फिलिप सोलेर, नादिन गॉर्डिमार वगैरह कई लेखकों ने चिट्ठी लिखी थी। खुली चिट्ठी यूरोप की विभिन्न पत्रिकाओं में एक ही दिन में भिन्न-भिन्न भाषाओं में छापी जाती थीं। अधिकांश चिट्ठियाँ उस वक्त लिखी गई थीं, जब मैं अपने देश में अतल में छिपती फिर रही थी। इन तमाम चिट्ठियों ने ही पश्चिम के शासकवर्ग को मेरे पक्ष में खड़े होने को उकसाया था, वरना किसी को कुछ करने की क्या गरज पड़ी थी। उन तमाम चिट्ठियों का संकलन जर्मन और फ्रांसीसी प्रकाशकों ने पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित किया।
मैंने सिर्फ सलमान रुशदी का ख़त पढ़ा था। अन्य लेखकों का ख़त नहीं पढ़ पाई। सबने अपनी-अपनी भाषा में ख़त लिखे थे। अंग्रेजी के अलावा, जो ख़त दूसरी भापाओं में लिखे गए थे, वे सब पढ़ने की क्षमता मुझमें नहीं थी। जब उन ख़तों का अनुवाद प्रकाशित हुआ, तब मुझे जानकारी मिली कि नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत लेखिका, दक्षिण अफ्रीका की नादिन गॉर्डिमार ने 'दि रिपब्लिकन ऑफ लेटर्स' पत्रिका के 8 जुलाई अंक में लिखा था-'मैंने तसलीमा नसरीन का एक इंटरव्यू पढ़ा है। उसी के जरिए तसलीमा को थोड़ा-बहुत जाना है। उसकी दृढ़ चारित्रिक शक्ति और सतेज चिन्तनशीलता, उन्हें उस इम्तहान में भरपूर मदद करेगी, जिसमें उनकी लेखकीय सत्ता और मानवसत्ता को धकेल दिया गया है। उनमें साहस की कोई कमी नहीं है, फिर भी वे यह जानकर आश्वस्त होंगी कि अन्य बहुत-से लेखक साथियों की तरह चिंतन-मनन में मैं भी उनकी संगी हूँ। उनकी मुक्ति के लिए मैं यथासाध्य कोशिश करूँगी। हमें जिन सच्चाइयों की जानकारी होती है, उसे जाहिर करते हए जो कुछ खोना पड़ता है, वे उन सबकी जीवन्त प्रतीक हैं।'
अगर अनुवाद न किया गया होता, तो मुझे बात इयोर के ख़त की जानकारी होना संभव नहीं था-'प्रिय तसलीमा, मैं उन लाखों-लाखों औरतों में से एक हूँ, जो आपके प्रति श्रद्धा रखती हैं, लेकिन जिन्हें आप नहीं पहचानतीं। आप असंख्य औरतों की असीम शक्ति के साथ एकात्म हो गई हैं। ये सभी औरतें आपके मर्यादाबोध और साहस के प्रति श्रद्धा रखती हैं। इधर ये औरतें बिल्कुल ख़ामोशी से बलि हो रही हैं और बिना किसी प्रतिवाद के इसे अपनी नियति मान लेती हैं। चूँकि आप खुद एक औरत हैं, इसलिए इन लोगों का आवेदन, इनकी नीरव शिकायतें, आपने महसूस की हैं। आपने इन लोगों की तरफ से मुँह फेरकर उदासीनता नहीं दिखाई, वल्कि इनकी तकलीफ और फरियाद अपने दम-खम पर ग्रहण की। इन सवका वांझ आप ढो रही हैं। इन लोगों की तकलीफ और यंत्रणाओं को समेटकर आप उन सबकी भागीदार बन गई हैं। हालाँकि आपको खुद कभी उस किस्म की तकलीफें नहीं झेलनी पड़ी। आपकं सोच-विचार और आपकी बुद्धि उन लोगों के समर्थन से ही पुष्ट हुई है, जो अपने ख़याल जाहिर करने में अक्षम हैं और हिंस्रता की असहाय शिकार हैं। एक डॉक्टर की तरह, आपने उन लोगों के रोग-निवारण की कोशिश की है। आपने कोशिश की है कि सामाजिक ढाँचे से घृणा, कुसंस्कार और अंधा गँवारपन उखाड़ फेंकें और एक स्वस्थ समाज गढ़ सकें। अपनी जान का जोखिम उठाकर जो लोग रोगियों का इलाज करते हैं, आप उसी किस्म की निःस्वार्थ यथार्थवादी चिकित्सक हैं। ऐसा कदम उठाकर आप एक महान और साहसिक कार्य संपन्न कर रही हैं। आप इस अन्याय, शर्मनाक घृणित स्थिति, खामोशी से कबूल करते हुए चिंता-फिक्ररहित, ऐश की जिंदगी गुज़ार सकती थीं, लेकिन आप उन ख़ामोश, निष्क्रिय लोगों की भीड़ में शामिल नहीं हुईं।
जो लोग भेद-भाव, कुसंस्कार और गँवारपन द्वारा नियंत्रित होकर समाज के मुट्ठीभर लोगों को खारिज कर देते हैं, आप ऐसे लोगों की निर्मम समालोचक हैं। आपने लोगों को मैत्री और एकता की आवाज सुनाने की कोशिश की है। अपना यह कर्तव्य निभाते हुए आपने कुछेक लोगों पर हमला भी किया है। जो लोग खुद ही मनमाने ढंग से नैतिकता का मानदंड तय करना चाहते हैं या अपने को दूसरों का विचारक, उन लोगों को अपाहिज वनाने या हत्या कर डालने पर अपना एकछत्र अधिकार मानते हैं, वे ही लोग आपके हमले का निशाना हैं। जो लोग उनके विरोधी हैं, उन लोगों पर ये लोग तरह-तरह के अत्याचार बरसाकर पूरी तरह निष्क्रिय कर देते हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि ऐसी अशुभ शक्तियाँ, दुनिया में हर ओर, हर संस्कृति में फैली हुई हैं। इन अशुभ शक्तियों की ही परिणति है-जन-हत्या यानी आउसव्हित्स गुलग! प्रिय तसलीमा, अनगिनत नारियाँ आपको अपनी श्रद्धा और धन्यवाद अर्पित करती हैं।
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